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प्र वां॒ रथो॒ मनो॑जवा इयर्ति ति॒रो रजां॑स्यश्विना श॒तोति॑: । अ॒स्मभ्यं॑ सूर्यावसू इया॒नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vāṁ ratho manojavā iyarti tiro rajāṁsy aśvinā śatotiḥ | asmabhyaṁ sūryāvasū iyānaḥ ||

पद पाठ

प्र । वा॒म् । रथः॑ । मनः॑ऽजवा । इ॒य॒र्ति॒ । ति॒रः । रजां॑सि । अ॒श्वि॒ना॒ । श॒तऽऊ॑तिः । अ॒स्मभ्य॑म् । सू॒र्या॒व॒सू॒ इति॑ । इ॒या॒नः ॥ ७.६८.३

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:68» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:14» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे राजपुरुषो ! (वां) तुम्हारा (रथः) यान (सूर्यावसू) जो सूर्य्य तक वेगवाला (इयानः) गतिशील (मनोजवाः) मन के समान शीघ्रगामी (शतोतिः) अनेक प्रकार की रक्षा के साधनोंवाला है, वह (रजांसि, तिरः) लोक-लोकान्तरों को तिरस्कृत करता हुआ (अस्मभ्यं) हमारे यज्ञ को (प्र, इयर्ति) भले प्रकार प्राप्त हो ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे याज्ञिक पुरुषो ! तुम उक्त प्रकार के रथ=यानोंवाले राजपुरुषों को अपने यज्ञ में बुलाओ, जिनके यान नभोमण्डल में सूर्य्य के साथ स्थितिवाले हों और जिनमें रक्षाविषयक अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लगे हुए हों। यहाँ रथ के अर्थ पहियोंवाले भूमिस्थित रथ में नहीं किन्तु “रमन्ते यस्मिन् स रथ:”=जिसमें भले प्रकार रमण किया जाय, उसका नाम “रथ” है, सो भलीभाँति रमण आकाश में ही होता है, भूमिस्थित रथ में नहीं और न यह सूर्य्य तक गमन कर सकता है, इत्यादि विशेषणों से यहाँ विमान का कथन स्पष्ट है ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे राजपुरुषाः ! (वां) युवयोः (रथः) यानं (सूर्यावसू) सूर्यस्थानन्तवर्ती (इयानः) गतिशीलः (मनोजवाः) मनोवच्छीग्रगामी (शतोतिः) अनेकविध-रक्षासाधनैः सुसज्जितः (रजांसि) विविधलोकान् (तिरः) तिरस्कृत्य (अस्मभ्यं) अस्मदर्थं (प्र, इयर्ति) सम्यक्प्रकारेण प्राप्नोतु इत्यर्थः ॥३॥